( कविता कोश)

  ( कविता कोश)                                                गोरखपुर ही नहीं पूर्वांचल के प्रख्यात रंगकर्मी मानवेन्द्र त्रिपाठी किसी परिचय के मोहताज नहीं है ।रंगमंच ही नहीं सिनेमा में भी बड़ी बड़ी उपलब्धि हासिल करते जा रहे है।लेकिन आज हम बात कर रहे है उनके नए हुनर के बारे में जो ( कविता कोश) वर्तमान परिवेश में सटीक बैठती है।                                                                                                                बड़ी अजीब बात है,
              अब तो दिन में भी काली रात है।


         हवाएं सर्द है, दिलों में दर्द हैं
         नफरतों का कोहरा छाया है,
       सुना, इंसानियत फिर लहूलुहान आया है।
                            *
                 बड़ी अजीब बात है,
      अब तो दिन में भी काली रात है।


        रह रह कर क्यों ये मौसम आता है
      नफरतों के बीज बो कर चला जाता है,
  अब चमन में गुल कम खार ही खार  आता है।
                            *
           बड़ी अजीब बात है,
       अब तो दिन में भी कली रात है।


       सुना है वो जालिम जब भी आता है
       अफवाहों का बाजार साथ लाता है,
      जलता धू धू कर शहर, अमन खड़ा बेबस नजर आता है।
                             *
        बड़ी अजीब बात है,
      अब तो दिन में भी काली रात है।


      बड़ी मासूमियत से वो जाल बिछाता है
      धर्म मजहब के दाने फेंक फेंक हमें फसाता है
       अपना अपनों पे सितम ढाता है
     तभी तो आज घर का चराग घर को जलाता है
     क्यूं, क्यूं ये बात हमारी समझ में नहीं आता है
                            *
    बड़ी अजीब बात है,
    अब तो दिन में भी काली रात है।


   धर्म और सियासत का जब जब ठेका हो जाता है,
   तब तब भगवान बाहर, ठेकेदार मन्दिरों मस्जिदों में बैठ         जाता है।
   फिर तो मजहब आपस में बैर करना ही सिखाता है,
                            *
    बड़ी अजीब बात है,
    अब तो दिन में भी काली रात है।   


         ✍🏼 मानवेंद्र त्रिपाठी ✍🏼